आर्यभटीयम ज्योतिशास्त्र की किताब / Aryabhatiya In Hindi Pdf

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Aryabhatiya In Hindi Pdf

 

 

पुस्तक का नाम  Aryabhatiya In Hindi Pdf
पुस्तक के लेखक  परमेश्वर 
भाषा  हिंदी 
फॉर्मेट  Pdf 
श्रेणी  ज्योतिष 
साइज  10 Mb 
पृष्ठ  134 

 

 

 

आर्यभटीयम ज्योतिशास्त्र की किताब Pdf Download

 

 

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सिर्फ पढ़ने के लिये 

 

 

अष्टावक्र ने कहा, ‘‘हे शुभे! स्नान करके मैं सन्ध्यावन्दन करूँगा।’’ वृद्धा ने जल का प्रबन्ध किया। महर्षि स्नान कर चुके। इसके बाद वृद्धा ने पूछा, ‘‘हे भगवान्! अब मैं क्या करूँ?’’ अष्टावक्र कुछ भी उत्तर नहीं दे पाये और चिन्तामग्न होकर सोचने लगे।

 

 

 

इसी बीच उत्तर की प्रतीक्षा न करती हुई वृद्धा उठी और अन्दर से एक थाल में सजाकर स्वादिष्ट भोजन ले आयी। महर्षि भोजन करने लगे। फिर भोजन करते-करते उन्हें पूरा दिन बीत गया। रात्रि आयी। वृद्धा ने अलग-अलग पलंग बिछवा दिये। महर्षि जाकर अपने पलंग पर लेट गये और कुछ देर बाद उनको नींद आ गयी।

 

 

 

आधी रात्रि के समय वृद्धा फिर सम्भोग की इच्छा रखती हुई उनके पलंग पर आ गयी। महर्षि सहसा जागकर कहने लगे, ‘‘हे देवी! तुम व्यर्थ प्रयत्न न करो। परस्त्री के साथ सम्भोग के लिए मेरा हृदय गवाही नहीं देता। यह कार्य मुझे धर्म-विरुद्ध लगता है, इसलिए इसे त्याज्य समझकर मैं इसमें कदापि प्रवृत्त नहीं होऊँगा।’’

 

 

 

इस पर वृद्धा कहने लगी, ‘‘हे भगवन्! आपकी शंका निर्मूल है। मैं स्वाधीन स्त्री हूँ। माता-पिता या पति किसी का भी मेरे ऊपर अधिकार नहीं है। मेरे साथ सहवास करने से आपको परस्त्री-गमन का दोष क्यों लगेगा?’’ अष्टावक्र वृद्धा के तर्क पर पूर्ण दृढ़ता के साथ कहा, ‘‘हे देवी! तुम्हारा यह कहना कि तुम स्वाधीन हो, निराधार है।

 

 

 

प्रजापति ने कहा है कि स्त्री जाति कभी स्वाधीन नहीं हो सकती।’’ वृद्धा ने कौतूहलवश पूछा, ‘‘क्यों?’’ अष्टावक्र ने कहा, ‘‘हे शुभे! प्रजापति ने कहा है कि लोक में कोई भी स्त्री स्वाधीन नहीं है। बाल्यावस्था में पिता, यौवनावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र स्त्रियों की रक्षा करते हैं।

 

 

 

इसलिए वे इन्हीं के अधीन रहती हैं। फिर बताओ, तुम किस प्रकार स्वतन्त्र हो?’’ अष्टावक्र के तर्क के साथ किसी तरह न उलझते हुए वृद्धा ने दूसरा पैंतरा लेकर कहना प्रारम्भ किया, ‘‘हे देव! मैं इस समय काम से पीड़ित हूँ और आपके साथ सम्भोग की कामना करती हूँ।’’

वृद्धा के इतना कह देने पर भी अष्टावक्र अडिग रहे और उसी दृढ़ता के साथ कहने लगे, ‘‘हे शुभे! साधारणतया मनुष्य काम, क्रोध आदि दोषों के वशीभूत होकर इस संसार में कितने ही जघन्य पाप करता है लेकिन मैंने कठोर संयम से अपने मन को अपने वश में कर लिया है।

तुम किसी भी तरह उसको विचलित नहीं कर पाओगी, इसलिए तुम्हारा इस तरह आग्रह करना व्यर्थ है। जाओ, अपने पलंग पर चली जाओ।’’ अब तो वृद्धा को गहरा धक्का लगा लेकिन फिर भी उसने धैर्य नहीं छोड़ा और फिर वह आशा लेकर अष्टावक्र से बोली, ‘‘हे महर्षि! यदि आप मुझे परस्त्री समझते हैं और इसी कारण पाप समझकर सम्भोग करते हुए डरते हैं तो मुझे अपनी स्त्री बना लीजिए। मैं इसके लिए सहर्ष तैयार हूँ।

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