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तब वही विज्ञान रूपिणी बुद्धि प्रकाश में मिलने से हृदय रूपी घर में बैठकर जड़-चेतन के गांठ को खोलती है। यदि वह विज्ञान रूपिणी बुद्धि उस गांठ को खोलने पावे तब वह जीव कृतार्थ हो। परन्तु हे पक्षिराज गरुण जी! गांठ खुलते हुए देखकर माया फिर अनेक विघ्न उत्पन्न करती है।
हे भाई! वह बहुत सी रिद्धि-सिद्धि, कल, बल, छल करके दीपक के समीप जाकर आंचल की वायु से दीपक को बुझा देती है। यदि बुद्धि बहुत ही सायानी हुई तो वह रिद्धि-सिद्धि को अहितकर जानकर उनकी तरफ नहीं देखती है। इस प्रकार यदि माया के विघ्न से बुद्धि को बाधा न हुई तो फिर देवता विघ्न उत्पन्न करते है।
इन्द्रियों के द्वार हृदय रूपी घर के अनेक झरोखे है। वहां प्रत्येक झरोखे पर देवता थाना किए रहते है ज्यों ही वह विषय रूपी हवा को आते हुए देखते है त्यों ही हठ पूर्वक किवाड़ खोल देते है। ज्यों ही वह तेज हवा हृदय रूपी घर में आती है त्यों ही विज्ञान रूपी दीपक बुझ जाता है।
गांठ भी नहीं छूटी और वह आत्मानुभव प्रकाश भी मिट गया। विषय रूपी हवा से बुद्धि व्याकुल हो गयी और सारा किया धरा सब चौपट हो गया। इन्द्रियों और उनके देवताओ को ज्ञान स्वाभाविक रूप से नहीं सुहाता है क्योंकि उनकी विषय भोग में सदा ही प्रीति रहती है और बुद्धि को भी विषय रूपी हवा ने बावली बना दिया है। तब फिर दुबारा उस ज्ञान दीपक को उसी प्रकार से कौन जलावे?
इस प्रकार से ज्ञान दीपक के बुझ जाने पर तब जीव फिर अनेक प्रकार से जन्म-मरण का क्लेश भोगता है। हे पक्षीराज गरुण! हरि की माया अत्यंत दुस्तर है वह सहज में ही तरी नहीं जाती है। ज्ञान समझाने में कठिन, समझने में कठिन और साधने में भी कठिन है। यदि संयोग वश कदाचित यह ज्ञान हो भी जाय तो फिर उसे बचाये रखने में अनेक विघ्न है।
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