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Bina Aushadhi Ke Kayakalp PDF

 

 

पुस्तक का नाम  Bina Aushadhi Ke Kayakalp PDF
पुस्तक के लेखक  श्री राम शर्मा 
भाषा  हिंदी 
फॉर्मेट  Pdf 
साइज  2.1 Mb 
पृष्ठ  48 
श्रेणी  आयुर्वेद 

 

 

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सिर्फ पढ़ने के लिये

 

 

इस पुस्तक के बारे में किंवदंती है कि रामकृष्ण परमहंस ने भी यही पुस्तक नरेंद्र को पढ़ने को कहा था।जिसके पश्चात वे उनके शिष्य बने और कालांतर में स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। इस ग्रंथ का प्रारम्भ राजा जनक द्वारा किये गए तीन प्रश्नों से होता है। (१) ज्ञान कैसे प्राप्त होता है?, (२) मुक्ति कैसे होगी?, (३) वैराग्य कैसे प्राप्त होगा?

 

 

 

ये तीन शाश्वत प्रश्न हैं जो हर काल में आत्मानुसंधानियों द्वारा पूछे जाते रहे हैं। ऋषि अष्टावक्र ने इन्हीं तीन प्रश्नों का संधान राजा जनक के साथ संवाद के रूप में किया है जो अष्टावक्र गीता के रूप में प्रचलित है। ये सूत्र आत्मज्ञान के सबसे सीधे और सरल वक्तव्य हैं। इनमें एक ही पथ प्रदर्शित किया गया है जो है ज्ञान का मार्ग। ये सूत्र ज्ञानोपलब्धि के, ज्ञानी के अनुभव के सूत्र हैं।

 

 

 

स्वयं को केवल जानना है—ज्ञानदर्शी होना, बस। कोई आडम्बर नहीं, आयोजन नहीं, यातना नहीं, यत्न नहीं, बस हो जाना वही जो हो। इसलिए इन सूत्रों की केवल एक ही व्याख्या हो सकती है, मत मतान्तर का कोई झमेला नहीं है; पाण्डित्य और पोंगापंथी की कोई गुंजाइश नहीं है।

अष्टावक्र गीता में २० अध्याय हैं

साक्षी, आश्चर्यम्, आत्माद्वैत, सर्वमात्म, लय, प्रकृतेःपरः,शान्त, मोक्ष, निर्वाण, वैराग्य, चिद्रूप, स्वभाव, यथासुखम्, ईश्वर, तत्त्वम्, स्वास्थ्य, कैवल्य, जीवन्मुक्ति, स्वमहिमा, अकिंचनभाव। अष्टावक्र जी ने अपने आचरण से जो गीता-ज्ञान दिया है।उसका सार सन्देश यह है कि शरीर नाशवान है तथा शरीर के अंदर विद्यमान चैतन्य ऊर्जा अर्थात आत्मा अमर है।यही बात मन-बुद्धि से समझ लेना ही ज्ञान प्राप्ति या आत्मबोध है।

आत्मबोध की स्थिति मे जगत या संंसार मे आकर्षण समाप्त हो जाता है। इसे माया से निवृत्ति कहा जाता है।जीव और परमात्मा के बीच से माया समाप्त होने पर आनंद स्वरूप परमात्मा की अनुभूति होती है। अन्त मे गीता-सार यह है कि शरीर की शक्ति-सौंदर्य का गुमान न कर ,परमात्म ज्ञान के लिए तन,मन,चित्त को लगाना चाहिए।यही सत्य है, शेष सब मोह माया है।

 

 

 

अष्टावक्र का विवाह

एक बार महर्षि, अष्टावक्र महर्षि वदान्य के पास जाकर उनकी कन्या के साथ विवाह करने की इच्छा प्रकट की। तब महर्षि वदान्य ने मुस्कराते हुए अष्टावक्र से कहा, ‘‘पुत्र! मैं अवश्य तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगा और तुम्हारे साथ ही अपनी कन्या का पाणिग्रहण करूँगा; लेकिन इसके लिए तुम्हें मेरी एक आज्ञा माननी पड़ेगी।’’

अष्टावक्र ने कौतूहल से पूछा, ‘‘वह क्या महर्षि?’’ महर्षि वदान्य ने कहा, ‘‘तुम्हें उत्तर दिशा में जाना होगा। अलकापुरी और हिमालय पर्वत के आगे जाने पर तुम्हें कैलाश पर्वत मिलेगा। वहाँ महादेव जी अनेक सिद्ध चारण, भूत-पिशाच गणों के साथ विचरण करते हैं।

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