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Devi Bhagwat Puran Pdf Hindi Download
पुस्तक का नाम | देवी भागवत पुराण Pdf |
पुस्तक के लेखक | हनुमान प्रसाद |
साइज | 48.8 Mb |
पृष्ठ | 722 |
श्रेणी | धार्मिक |
फॉर्मेट | |
भाषा | हिंदी |


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सिर्फ पढ़ने के लिये
जैसे भोजन तृप्ति के लिए किया जाता है और उस भोजन को आमाशय बिना हमारी चेष्टा के पचा देता है ऐसी सुगम और परम सुख देने वाली हरिभक्ति जिसे न सुहावे ऐसा मूढ़ कौन होगा?
हे सर्पो के शत्रु गरुण जी! मैं सेवक हूँ और भगवान मेरे स्वामी है इस भाव के बिना संसार रूपी समुद्र से पार नहीं हुआ जा सकता है। ऐसा विचारकर श्री राम जी के चरण कमल का भजन कीजिए जो चेतन को जड़ कर देता है और चेतन को जड़ कर देता है ऐसा समर्थ रघुनाथ जी को जो जीव भजते है वह धन्य है।
हे हरि वाहन! मैं जो भी शरीर धारण करता उसे बिना परिश्रम वैसे ही सुख पर्वक त्याग देता था जैसे मनुष्य पुराना वस्त्र त्यागकर नया पहन लेता है। शिव जी ने मर्यादा पूर्वक वेद की रक्षा किया और मुझे क्लेश भी नहीं मिला। इस प्रकार से हे पक्षीराज! मैंने बहुत से शरीर धारण किए पर मेरा ज्ञान नहीं गया।
पशु-पक्षी की योनि, देवता या मनुष्य का जो भी शरीर धारण करता, वहां-वहां उस शरीर में श्री राम जी का भजन जारी रखता। इस प्रकार से मैं सुखी हो गया। परन्तु एक दुख मन में हमेशा बना रहा। गुरु जी का कोमल सुशील स्वभाव? मैंने कोमल स्वभाव वाले दयालु गुरु जी का अपमान किया यह दुःख मुझे हमेशा ही बना रहा।
मैंने अंत में ब्राह्मण का शरीर प्राप्त किया जिसे पुराण और वेद देवताओ को भी दुर्लभ बताते है। मैं वहां ब्राह्मण के शरीर में श्री रघुनाथ जी के लीला का ही खेल करता था। थोड़ा बड़ा होने पर पिताजी मुझे पढ़ाने लगे। मैं समझता सुनता और विचार करता पर मुझे पढना अच्छा नहीं लगता था।
मेरे मन से सारी वासनाये भाग गयी। केवल श्री राम जी के चरणों में प्रीति लग गयी। हे गरुण जी! कहिए, ऐसा कौन अभागा होगा जो कामधेनु को छोड़कर गदहे की सेवा करेगा? प्रेम में मग्न रहने के कारण मुझे कुछ सुहाता न था। पिता जी पढ़ा-पढ़ा कर हार गए।
जब माता-पिता काल वश हो गए तब मैं भक्तो की रक्षा करने वाले श्री राम जी का भजन करने के लिए वन में चला गया। वन में जहां भी मुनीश्वरो के आश्रम मिलते वहां जाकर उन्हें सिर नवाता।
ही गरुण जी! मैं उनसे श्री राम जी के गुणों की कथाये पूछता। वह कहते और मैं हर्षित होकर सुनता। इस प्रकार मैं सदा सर्वदा श्री हरि के गुणानुवाद सुनता फिरता। शिव जी की कृपा से मेरी सर्वत्र अवाधित गति थी मैं जहां चाहता वही जा सकता था।
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