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रामप्रताप और श्यामप्रताप नाम के मित्र थे. दोनों बहुत ही परम मित्र थे. अपने हर सुख दुःख को आपस में बात लेते थे. वे उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच चुके थे जहां प्यार, स्नेह , सम्मान मिलना बहुत म लोगों को नसीब होता है.
रामप्रताप ने तो जवानी के दिनों में कुछ पैसे रख थे जिसके लालच में उसकी सेवा हो थी …..लेकिन शामप्रताप ने जवानी के दिनों में खूब पैसे उडाये ….उसने पैसे नहीं बचाए …फलस्वरूप उसका बुढापा कष्टों से कट रहा था.
पैसों के कारण रामप्रताप की परिवार पर पूरी पकड़ थी..वहीँ श्यामप्रताप की स्थिति ठीक उसके विपरीत थी…किसी ने ठीक ही कहा है की जैसा पेड़ बोवोगे..वैसा ही फल खाओगे.
यह कहावत आज श्यामप्रताप पर चरितार्थ हो रही थी. इससे श्यामप्रताप बहुत दुखी रहने लगा था. जब बहु और बेटे उसी ताना मारते तो उसका दुःख और भी बढ़ जाता.
एक दिन जब दोनों मित्र मिले तो दोनों ने अपनी सुख दुःख कही….श्यामप्रताप की स्थिति पर रामप्रताप को बड़ा दुःख हुआ….उसने कहा कि मैं तुम्हे पहले भी समझाया था कि बुढ़ापे के लिए कुछ पैसे रख लो , लेकिन तुमने मेरी एक ना सुनी लो अब भुगतो.
भैया रामप्रताप अब जो होना था वह तो हो गया….अब कुछ उपाय बताओ…अब और सहा नहीं जाता….श्यामप्रताप बहुत ही दुखी होकर बोला. एक काम करो…कुछ पत्थर के सिक्के इकठ्ठा कर लो…राम प्रताप बात पूरी करता कि श्यामप्रताप ने उसे टोकते हुए कहा पत्थर के सिक्के इसका क्या तात्पर्य है.
अरे तुम एक काम करो कुछ छोटे छोटे पत्थर ले लो और उसे रात को किसी बरतन में रखकर खनखनाया करो….इससे तुम्हारे बहु बेटे समझेंगी कि तुम्हारे पास बहुत सारे सिक्के हैं. फिर वी तुम्हारी सेवा करेंगे और हर कहा मानेंगे.
श्यामप्रताप ने वही किया और उसकी तक़दीर बदल गयी. जब वह रात को पत्थर के सिक्के को बरतन में रखकर बजाया तो उसकी बहु को विश्वास नहीं हुआ…वह दौड़कर अपने पति के पास और साड़ी बात बतायी .
इस पर उसके विश्वास नहीं हुआ तो श्यामप्रताप की बहु ने कहा कि चलो खुद ही सुन लो कि ससुर जी पैसे गिन रहे हैं कि नहीं…..जब वह पति के साथ आई तो वैसी ही आवाज आ रही थी….यह सुनकर श्यामप्रताप के बेटे ने आवाज लगाईं ” बाबूजी “.
ठीक उसी समय श्यामप्रताप ने पत्थर के सिक्के गिनना बंद कर दिया और सोने का नाटक करने लगा. अब तो उसके बेटे और बहु को यह विश्वास हो कि श्यामप्रताप के पास पैसा है. अब उसकी खूब सेवा होने लगी .
एक बार जब वह बहुत बीमार पडा तो उसके बेटे ने अच्छे से दवा करवाई ….खूब सेवा की…लेकिन शायद श्यामप्रताप का समय खत्म हो गया था. वह इस दुनिया को छोड़ चुका था. दाह संस्कार के बाद एक दिन बहु बेटे ने सोचा कि चलो देखते हैं कि बापू ने कितने पैसे रखे हैं.
आवाज तो बहुत आती थी…पैसे ज्यादा ही होने चाहिए….श्यामप्रताप की बहु मन ही मन खुश होते हुए सोच रही थी. दोनों ने पूरा कमरा छान मारा कही कुछ नहीं मिला…अचानक उसकी बहु की नजर चारपाई के नीचे रखे बर्तन पर गयी.
वह ख़ुशी से चीखी . मिल गया पैसा और जब उसने उस बरतन के ढक्कन को हटाया तो देखा की उसमे तो पत्थर रखे थे …..उसे एक पल के लिए विश्वास नहीं हुआ.वे वही एकदम से बैठ गए. इसी पत्थर के सिक्के कारण श्यामप्रताप का बुढ़ापा आराम से कट गया.
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