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सिर्फ पढ़ने के लिये 

 

 

 

निष्पाप पितामह! ये सब बातें तथा और भी जो आवश्यक बातें हो उन सबका आपको वर्णन करना चाहिए। प्रजानाथ! शिव और शिवा के आविर्भाव एवं विवाह का प्रसंग विशेष रूप से कहिए तथा कार्तिकेय के जन्म की कथा भी मुझे सुनाइए।

 

 

 

 

प्रभो! पहले बहुत लोगो से मैंने ये बातें सुनी है किन्तु तृप्त नहीं हो सका हूँ। इसीलिए आपकी शरण में आया हूँ आप मुझपर कृपा कीजिए। अपने पुत्र नारद की यह बात सुनकर लोक पितामह ब्रह्मा वहां इस प्रकार बोले। ब्रह्मा जी ने कहा – ब्रह्मन! देवशिरोमणि! तुम हमेशा समस्त जगत के उपकार में ही लगे रहते हो।

 

 

 

 

तुमने लोगो के हित की कामना से यह बहुत उत्तम बात पूछी है। जिसके सुनने से सम्पूर्ण लोको के समस्त पापो का क्षय हो जाता है। उस अनामय शिव तत्व का मैं तुमसे वर्णन करता हूँ। शिव तत्व का स्वरुप बड़ा ही उत्कृष्ट और अद्भुत है। जिस समय समस्त चराचर जगत नष्ट हो गया था सर्वत्र केवल अंधकार ही अंधकार था।

 

 

 

 

न सूर्य दिखाई देते थे न चन्द्रमा। अन्यान्य ग्रहो और नक्षत्रो का भी पता नहीं था। न दिन होता था न रात। अग्नि, पृथ्वी, वायु और जल की भी सत्ता नहीं थी। प्रधान तत्व से रहित सूना आकाश मात्र शेष था। दूसरे किसी तेज की उपलब्धि नहीं होती थी। अदृष्ट आदि का भी अस्तित्व नहीं था।

 

 

 

 

शब्द और स्पर्श भी साथ छोड़ चुके थे। गंध और रूप की भी अभिव्यक्ति नहीं होती थी। रस का भी अभाव हो गया था। इस प्रकार सब ओर निरंतर सूची भेद्य घोर अंधकार फैला हुआ था। उस समय तत्सदब्रह्म इस श्रुति में जो सत सुना जाता था। एकमात्र वही शेष था।

 

 

 

 

जब यह, वह, ऐसा जो इत्यादि रूप से निर्दिष्ट होने वाला भावाभावात्मक जगत नहीं था। उस समय एकमात्र वह सत ही शेष था। जिसे योगीजन अपने हृदयाकाश के अंदर लगातार देखते है। वह सत्तत्त्व मन का विषय नहीं है। वाणी की भी वहां तक कभी पहुंच नहीं होती।

 

 

 

 

वह नाम तथा रूप रंग से भी शून्य है। वह न स्थूल है न कृश, न ह्रस्व है न दीर्घ तथा न लघु है न गुरु। उसमे न कभी वृद्धि होती है न ह्रास। श्रुति भी उसके विषय में चकितभाव से ‘है’ इतना ही कहती है। उसका कोई विशेष विवरण देने में असमर्थ हो जाती है।

 

 

 

 

वह ज्ञानस्वरूप, परमानन्दमय, सत्य, अनंत, परम ज्योतिःस्वरूप, आधाररहित, अप्रमेय, निर्गुण, सर्वव्यापी, निराकार, योगिगम्य, सबका एकमात्र कारण, निरारंभ, उपद्रव रहित, निर्विकल्प, मयशून्य, अनादि, संकोच विकास से शून्य, अद्वितीय, तथा चिन्मय है।

 

 

 

 

जिस परब्रह्म के विषय में ज्ञान और अज्ञान से पूर्ण उक्तियों द्वारा इस प्रकार विकल्प किए जाते है। उसने कुछ काल के बाद द्वितीय की इच्छा प्रकट की उसके अंदर एक से अनेक संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से अपने लिए मूर्ति की कल्पना की।

 

 

 

 

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