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Kabir Sakhi pdf Hindi
इस पुस्तक के बारे में—
कबीर ते नर ऊंघ है, गुरु को कहते और। हरि रुठे गुरु ठौर है, गुरु रुठे नहीं ठौर।। गुरु है बड़ गोविन्द ते, मन में देखु विचार। हरि सुमिरै सो बार है, गुरु सुमिरे सो पर।। गुरु सीढ़ी ते ऊतरै, सबद बिहूना होय। ताको काल घसीटी है, राखि सकै नहीं कोय।। अहं अगिन निसि दिन जरै, गुरु से चाहै मान। ता को जम न्योता दियो, होहु हमार महिमान।।
गुरु से भेद जो लीजिए, सीस दीजिए दान। बहुतक भोंदू बहि गए, राखि जीव अभिमान।। गुरु समान दाता नहीं, जाचक शिष्य समान। तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्हा दान।। जम गरजे बल बाघ के, कहै कबीर पुकार। गुरु किरपा ना होत जो, तौ जम खाता फार।। गुरु पारस गुरु परस है, चंदन बास सुबास। सतगुरु पारस जीव को, दीन्हा मुक्ति निवास।।
अबरन बरन अमूर्त जो, कहो ताहि पिन पेख। गुरु दया ते पावई, सुरत निरत करि देख।। पंडित पढ़ि गुनि पचि मुए, गुरु बिन मिलै न ज्ञान। ज्ञान बिना नहीं मुक्ति है, संत सबद परमान।। मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव। मूल नाम गुरु बचन है, मूल सत्य सत भाव।।
कहै कबीर तजि भरम को, नन्हा ह्वै के पीव। तेज अहं गुरु चरन गहु, जम से बाचै जीव।। तीन लोक नौ खंड में, गुरु ते बड़ा न कोई। करता करै न करि सकै, गुरु करै सो होइ।। कबिरा हरि के रुठते, गुरु के सरने जाइ। कहै कबीर गुरु रुठते, हरि नहीं होत सहाय।।
पुस्तक का नाम | कबीर साखी Pdf |
पुस्तक के लेखक | — |
पेज | 201 |
साइज | 45.8 Mb |
भाषा | हिंदी |
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