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Kapalkundala Pdf Hindi
भगवान का सर्वत्र दर्शन – जो मुझे (भगवान) को सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमे देखता है। उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – कृष्ण भावना भवित व्यक्ति भले ही प्रकृति की पृथक अभिव्यक्तियों को देखता प्रतीत हो किन्तु वह प्रत्येक दशा में इस कृष्ण भावनामृत से अवगत रहता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की शक्ति की ही अभिव्यक्ति है। कृष्ण भावना भावित व्यक्ति भगवान कृष्ण को सर्वत्र देखता है और सारी वस्तुओ को कृष्ण में देखता है। कृष्ण भावनामृत का मूल सिद्धांत ही यह है कि कृष्ण के बिना कोई अस्तित्व नहीं है और कृष्ण ही सर्वेश्वर है। कृष्ण भावनामृत कृष्ण प्रेम का विकास है ऐसी स्थिति जो मोक्ष से भी परे होती है।
आत्म साक्षात्कार के ऊपर कृष्ण भावनामृत की इस अवस्था में भक्त कृष्ण से एक रूप हो जाता है। तब भगवान तथा भक्त के बीच अंतरंग स्थापित हो जाता है और भक्त के लिए कृष्ण ही सब कुछ हो जाते है और वह प्रेममय कृष्ण से पूरित हो उठता है। उस अवस्था में जीव को विनष्ट नहीं किया जा सकता है और न भगवान भक्त की दृष्टि से ओझल हो सकता है। कृष्ण में तादात्म्य होना आध्यात्मिक लय (आत्म विनाश) है। भक्त कभी भी ऐसी विपदा नहीं उठाता है।
ब्रह्मसंहिता में (5. 38) कहा गया है। “मैं आदि भगवान गोविन्द की पूजा करता हूँ जिनक भक्त प्रेम रूपी अंजन लगे नेत्रों से करते है। वह भक्त के हृदय में श्याम सुन्दर रूप में देखे जाते है।” इस अवस्था में न तो भगवान कृष्ण अपने भक्त की दृष्टि से ओझल होते है और न भक्त ही उनकी दृष्टिं से ओझल हो पाते है क्योंकि अपने हृदय के भीतर परमात्मा रूप में भगवान का दर्शन करता है यही बात योगी के लिए भी सत्य है। ऐसा योगी सुद्ध भक्त बन जाता है और अपने अंदर भगवान को देखे बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता है
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