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Mantra in Hindi Pdf Download


सूर्य नमस्कार मंत्र Pdf Download
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सिर्फ पढ़ने के लिये
स्वरुप की पहचान, आत्मज्ञान होने पर क्या आसक्ति पूर्वक कर्म हो सकते है? परस्त्रीगामी क्या उत्तम गति प्राप्त कर सकता है? परमात्मा को जानने वाले क्या जन्म-मरण के चक्कर में पड़ सकते है? भगवान की निंदा करने वाले क्या कभी सुखी हो सकते है?
एक दिन मैं शिव जी के मंदिर में शिवनाग जप कर रहा था। उसी समय गुरु जी वहां आये अभिमान वश मैंने उठकर उनको प्रणाम नहीं किया। गुरु जी दयालु थे। मेरा दोष देखकर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा उनके हृदय में लेश मात्र भी क्रोध नहीं हुआ। पर गुरु का अपमान बहुत बड़ा पाप है अतः महादेव जी उसे नहीं सहन कर सके।
मंदिर में आकाशवाणी हुई कि अरेहत भाग्य! मुर्ख! अभिमानी! यद्यपि तेरे गुरु को क्रोध नहीं है वह अत्यंत कृपालु चित्त के है और उन्हें पूर्ण तथा यथार्थ ज्ञान है तो भी हे मुर्ख! मैं तुझको शाप दूंगा क्योंकि नीति का विरोध मुझे अच्छा नहीं लगता।
अरे मुर्ख! यदि मैं तुझको दंड न दूँ तो मेरा वेदमार्ग ही भ्रष्ट हो जायेगा। जो मुर्ख गुरु से ईर्ष्या करते है वह कोटि युगो तक रौख नर्क में पड़े रहते है फिर वहां से निकलकर पशु, पक्षी आदि योनि में शरीर धारण करते है और दस हजार वर्षो तक दुःख भोगते रहते है।
अरे पापी! तू गुरु के सामने अजगर की भांति बैठा रहा। रे मुर्ख! तेरी बुध्दि पाप से ढक गयी है अतः तू सर्प हो जा और अरे अधम से भी अधम! इस अधोगति सर्प की नीची योनि को प्राप्त करके किसी बहुत भारी पेड़ के खोखले में जाकर रह।
शिव जी का भयानक शाप सुनकर गुरु जी ने हाहाकार किया। मुझे कांपता हुआ देखकर उनके हृदय में बहुत बड़ा संताप उत्पन्न हुआ। प्रेम सहित दंडवत करके वह ब्राह्मण श्री शिव जी के सामने हाथ जोड़कर मेरी भयंकर गति का विचार करके गदगद वाणी से विनती करने लगे।
हे मोक्ष स्वरुप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेद स्वरुप, ईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्री शिव जी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निज स्वरुप में स्थित, मयदी रहित, माया के गुणों से रहित, भेद रहित, इच्छा रहित, चेतन आकाश रूप एवं आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दिगंबर आपको मैं भजता हूँ।
निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय तीनो गुणों से अतीत, वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलाशपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ। जो हिमांचल के समान गौर वर्ण तथा गंभीर है।
जिनके शरीर में कोटि कामदेव की ज्योति एवं शोभा है जिनके शिर पर सुंदर नदी गंगा जी विराजमान है जिनके ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा और गले में सर्प सुशोभित है। जिनके कानो में कुंडल हिल रहे है, सुंदर भृकुटि और विशाल नयन है।
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