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Om Jai Jagdish Hare Aarti Lyrics Pdf

 

 

ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी ! जय जगदीश हरे।
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे॥
ॐ जय जगदीश हरे।

जो ध्यावे फल पावे, दुःख विनसे मन का।
स्वामी दुःख विनसे मन का।
सुख सम्पत्ति घर आवे, कष्ट मिटे तन का॥
ॐ जय जगदीश हरे।

मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूँ मैं किसकी।
स्वामी शरण गहूँ मैं किसकी।
तुम बिन और न दूजा, आस करूँ जिसकी॥
ॐ जय जगदीश हरे।

तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी।
स्वामी तुम अन्तर्यामी।
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी॥
ॐ जय जगदीश हरे।

तुम करुणा के सागर, तुम पालन-कर्ता।
स्वामी तुम पालन-कर्ता।
मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥
ॐ जय जगदीश हरे।

तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।
स्वामी सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूँ दयामय, तुमको मैं कुमति॥
ॐ जय जगदीश हरे।

दीनबन्धु दुखहर्ता, तुम ठाकुर मेरे।
स्वामी तुम ठाकुर मेरे।
अपने हाथ उठा‌ओ, द्वार पड़ा तेरे॥
ॐ जय जगदीश हरे।

विषय-विकार मिटा‌ओ, पाप हरो देवा।
स्वमी पाप हरो देवा।
श्रद्धा-भक्ति बढ़ा‌ओ, सन्तन की सेवा॥
ॐ जय जगदीश हरे।

श्री जगदीशजी की आरती, जो कोई नर गावे।
स्वामी जो कोई नर गावे।
कहत शिवानन्द स्वामी, सुख संपत्ति पावे॥
ॐ जय जगदीश हरे।

 

 

सिर्फ पढ़ने के लिये 

 

 

तब पुनः संशय में पड़कर मैं उस कमलपुष्प पर जाने को उत्सुक हुआ और नाल के मार्ग से उस कमल पर चढ़ने लगा। इस तरह बहुत ऊपर जाने पर भी मैं उस कमल के कोश को न पा सका। उस दशा में मैं और भी मोहित हो उठा। मुने! उस समय भगवान शिव की इच्छा से परम मंगलमयी उत्तम आकाशवाणी प्रकट हुई।

 

 

 

 

जो मेरे मोह का विध्वंस करने वाली थी। उस वाणी ने कहा – तप। उस आकाशवाणी को सुनकर मैंने अपने जन्मदाता पिता का दर्शन करने के लिए उस समय पुनः प्रयत्नपूर्वक बारह वर्षो तक घोर तपस्या की। तब मुझपर अनुग्रह करने के लिए चार भुजाओ और सुंदर नेत्रों से सुशोभित भगवान विष्णु वहां सहसा प्रकट हो गए।

 

 

 

 

उन परम पुरुष ने अपने हाथो में शंख, गदा, चक्र, और पद्म धारण कर रखे थे। उनके सारे अंग सजल जलधर के समान श्यामकांति से सुशोभित थे। उन परम प्रभु ने सुंदर पीतांबर पहन रखा था। उनके मस्तक आदि अंगो में मुकुट और महा मूल्यवान आभूषण शोभा पाते थे।

 

 

 

 

उनका मुखारबिंद प्रसन्नता से खिला हुआ था। मैं उनकी छवि पर मोहित हो रहा था। वे मुझे करोडो कामदेवों के समान मनोहर दिखाई दिए। उनका वह अत्यंत सुंदर रूप देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सांवली और सुनहरी आभा से उद्भासित हो रहे थे।

 

 

 

 

उस समय उन सर्वात्मा, चार भुजा धारण करने वाले, महाबाहु नारायण देव को वहां उस रूप में अपने साथ देखकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ। तदनन्तर उन नारायण देव के साथ मेरी बातचीत आरंभ हुई। भगवान शिव की लीला से वहां हम दोनों में कुछ विवाद छिड़ गया।

 

 

 

 

इसी समय हम लोगो के बीच में एक महान अग्निस्तंभ प्रकट हुआ। मैंने और श्री विष्णु ने क्रमशः ऊपर और नीचे जाकर उसके आदि अंत का पता लगाने के लिए बड़ा प्रयत्न किया। परन्तु हमे कही भी उसका ओर-छोर नहीं मिला। मैं थककर ऊपर से नीचे लौट आया और भगवान विष्णु भी उसी तरह नीचे से ऊपर आकर मुझसे मिले।

 

 

 

 

हम दोनों शिव की माया से मोहित थे। श्रीहरि ने मेरे साथ आगे-पीछे और अगल बगल से परमेश्वर शिव को प्रणाम किया। फिर वे सोचने लगे यह क्या वस्तु है? इसके स्वरुप का निर्देश नहीं किया जा सकता क्योंकि न तो इसका कोई नाम है और न कर्म ही है।

 

 

 

 

लिंग रहित तत्व ही यहां लिंग भाव को प्राप्त हो गया है। ध्यानमार्ग में भी इसके स्वरुप का कुछ पता नहीं चलता। इसके बाद मैं और श्रीहरि दोनों ने अपने चित्त को स्वस्थ करके उस अग्निस्तंभ को प्रणाम करना शुरू किया। हम दोनों बोले – महाप्रभो! हम आपके स्वरुप को नहीं जानते।

 

 

 

 

आप जो कोई भी क्यों न हो आपको हमारा नमस्कार है। महेशान! आप शीघ्र ही यथार्थ रूप का दर्शन कराइये। मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार अहंकार से आर्विष्ट हुए हम दोनों ही वहां नमस्कार करने लगे। ऐसा करते हुए हमारे सौ वर्ष बीत गए।

 

 

 

 

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