पूर्णमासी व्रत कथा Pdf | Purnima Vrat Katha in Hindi pdf

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Purnima Vrat Katha in Hindi pdf

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

पूर्णिमा व्रत स्त्रियां अपने सौभाग्य के लिए करती है। यह पूर्णिमा व्रत करने से उनका सौभाग्य अचल हो जाता है। उन्हें वैधव्य दुःख नहीं उठाना पड़ता है। यदि पूर्णिमा व्रत को स्वीकार किया जाय अथवा बत्तीस पूर्णिमा का व्रत रखने पर व्रती की सभी मनोकामनाएं भगवान शिव और माता पार्वती के आशीर्वाद से पूर्ण होती है।

 

 

 

 

पूर्णिमा व्रत करने वाली स्त्रियां अखंड सौभाग्यवती होती है तथा उन्हें धन सम्पदा के साथ ही पुत्र पौत्रादि का सुख प्राप्त होता है। द्वापर युग में भगवान कृष्ण ने अपनी पालनकर्ता माता यशोदा को इस व्रत की महिमा का वर्णन विस्तार से बताया था।

 

 

 

 

माता यशोदा ने श्री कृष्ण से पूछा था कि आज तुम मुझसे कोई ऐसा व्रत का विधान कहो जिससे इस मृत्युलोक में असमय ही स्त्रियों को विधवा न होना पड़े। श्री कृष्ण जी माता यशोदा से कहा – माते! आपका यह प्रश्न बहुत सुंदर है मैं इसका समाधान करता हूँ सुनो।

 

 

 

 

प्राचीन समय में इस पृथ्वी पर चन्द्रहास नामक राजा राज्य करता था। उसके राज्य में हर प्रकार की सम्पदा सुख था। उसके राज्य का नाम कार्तिका नगर था। चन्द्रहास नामक राजा के राज्य में एक बहुत धनवान ब्राह्मण अपने पत्नी के साथ जीवन व्यतीत करता था।

 

 

 

 

ब्राह्मण का सभाजीत नाम था। उसकी पत्नी का नाम प्रेमशीला था। सब प्रकार से परिपूर्ण होने के पश्चात भी दोनों बहुत दुखी रहते थे कारण की वह ब्राह्मण दम्पति निःसंतान थे। एक बार कार्तिका नगर में एक महात्मा का आगमन हुआ। वह सभी घरो से भिक्षा लेकर भोजन करते थे।

 

 

 

 

लेकिन एक बार भी वह सभाजीत ब्राह्मण के घर भिक्षा लेने नही गए। महात्मा के इस कार्य से ब्राह्मण दम्पति दुखी थे। सभाजीत ने महात्मा के पास जाकर पूछा – महात्मा! आपने एक बार भी हमे अपने दर्शन नहीं दिये मुझसे क्या अपराध हुआ है।

 

 

 

 

महात्मा बोले – वत्स! मैं निःसन्तान दम्पति के घर से भिक्षा नहीं ग्रहण करता हूँ निःसंतान के घर की भिक्षा पतित होती है और मैं पतित के घर की भिक्षा ग्रहण करके पाप का भागी नहीं बनना चाहता। सभाजीत ब्राह्मण बोला – महात्मा जी! इसमें मेरा क्या अपराध है?

 

 

 

 

मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि ऐसा कोई उपाय बताइये जिससे हमारी पुत्र प्राप्ति की इच्छा का समाधान हो जाय। महात्मा ने ब्राह्मण से कहा – तुम भगवती चंडी की आराधना करो तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी। ब्राह्मण ने अपनी पत्नी प्रेमशीला को सारी बात कहकर चंडी की आराधना करने वन में चला गया।

 

 

 

 

सभाजीत वन में जाकर भगवती चंडी के निमित्त व्रत और उपवास करने लगा। सोलह दिन व्यतीत होने पर भवानी चंडी ने स्वप्न में सभाजीत को दर्शन दिया और बोली – सभाजीत मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न होकर वरदान देती हूँ कि तुम्हे पुत्र की प्राप्ति होगी।

 

 

 

 

लेकिन वह अल्पायु होगा सोलहवे वर्ष में प्रवेश करते ही वह काल का ग्रास बन जायेगा। भगवती चंडी की बात सुनकर सभाजीत उदास हो गया। उसे निराशा में देखकर भगवती चंडी ने कहा – यदि तुम दोनों पति-पत्नी बत्तीस पूर्णिमा का व्रत विधि पूर्वक करोगे तब तुम्हारे पुत्र की अल्पायु दीर्घायु में परिवर्तित हो जाएगी तथा बत्तीस पूर्णमासी तक अपनी सामर्थ्य के अनुसार आटे का दीपक जलाकर शिव जी की पूजा करना।

 

 

 

 

इस स्थान पर ही प्रातःकाल तुम्हे एक आम का वृक्ष दिखेगा। उसके ऊपर आम के फल लगे होंगे। तुम एक आम का फल तोड़कर अपनी स्त्री को खिला देना भगवान शंकर की कृपा से तुम्हारी पुत्र कामना अवश्य पूर्ण होगी। प्रातःकाल होने पर ब्राह्मण को आम का वृक्ष दिखाई दिया जो फल से पूरित था।

 

 

 

 

सभाजीत ने आम के वृक्ष से एक फल तोड़कर अपनी पत्नी प्रेमशीला को दे दिया। प्रेमशीला ने ऋतु स्नान के बाद भगवान शंकर का ध्यान करते हुए आम के फल को खा लिया। समय व्यतीत होने के पश्चात उसे एक सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई।

 

 

 

 

ब्राह्मण दम्पति ने देवी की कृपा से प्राप्त उस फल का नाम देवीदास रख दिया। बालक देवीदास द्वितीया के चन्द्रमा की भांति बड़ा होने लगा। वह बालक बहुत सुंदर और सुशील था तथा विद्याध्यन में बहुत निपुण था। उसकी माता प्रेमशीला ने बत्तीस पूर्णमासी का व्रत रखना शुरू कर दिया।

 

 

 

 

सोलहवा वर्ष लगते ही ब्राह्मण दम्पति ने अपने पुत्र को उसके मामा सुजीत के साथ काशी में विद्याध्ययन करने के लिए पठा दिया तथा अल्पायु होने की बात उन्होंने किसी से भी नहीं बताई थी। ब्राह्मण दम्पति ने अपने पुत्र की मंगल कामना के लिए बत्तीस पूर्णमासी का व्रत पूर्ण किया।

 

 

 

काशी जाते समय सुजीत अपने भांजे देवीदास के साथ रात्रि विश्राम करने के लिए एक धर्मशाला में आश्रय लिया था। वही पड़ोस के गांव में आयी हुई बारात भी उसी धर्मशाला में ठहरी हुई थी। धर्मशाला से कुछ दूर एक गांव में ब्राह्मण कन्या का विवाह था। वह कन्या रूपवती और विदुषी थी।

 

 

 

जब विवाह का समय आया तो वर को धनुर्वात हो गया। वर के पिता ने कुटुंबी जनो से विचार करके देवीदास को वर के रूप में प्रस्तुत कर दिया और सोचा विवाह के उपरांत के सारे रीति रिवाज अपने पुत्र से करा दूंगा। वह ब्राह्मण सुजीत से जाकर बोला – कुछ समय के लिए अपने भांजे को हमारे साथ कर दो लग्न सम्पन्न करके मैं इसे फिर तुम्हे सौप दूंगा।

 

 

 

सुजीत बोला – लग्न के समय जो भी मधुपर्क इत्यादि जो कन्यादान के समय मिले वह सब तुम हमे दे दोगे तभी मेरा भांजा इस बारात में दूल्हा बनेगा। ब्राह्मण सुजीत की बातो से सहमत हो गया। देवीदास का विवाह विधि पूर्वक सम्पन्न हो गया लेकिन वह अपनी पत्नी के साथ भोजन नहीं कर सका तथा उदास हो गया।

 

 

 

तब वधू ने देवीदास के उदासी का कारण पूछा तब उसने अपने मामा सुजीत और वर के पिता के मध्य की सारी बाते बता दिया। तब वधू बोली – यह सब ब्रह्म विवाह के विपरीत नहीं हो सकता है मैंने देव, ब्राह्मण और अग्नि को साक्षी मानकर आपको अपना पति स्वीकार किया है अतः आप ही मेरे पति है।

 

 

 

देवीदास ने अपने अल्पायु होने की बात वधू से कह दिया। वधू बोली – मैंने दृढ निश्चय कर लिया है कि जो गति आपकी होगी वही गति हमारी भी होगी। आप भूख से व्याकुल होंगे आप उठिये और भोजन करिये। इसके पश्चात देवीदास और उसकी पत्नी ने भोजन किया फिर रात्रि विश्राम करने लगे।

 

 

 

प्रातःकाल होने पर देवीदास ने अपनी पत्नी को एक अंगूठी और रुमाल दिया जो एक संकेत के रूप में था। देवीदास ने अपनी पत्नी प्रिया से कहा – तुम एक पुष्प वाटिका बनाकर उसे सिंचित करते रहना अगर पुष्प वाटिका सूख जाए तब समझ लेना कि मेरा अंत हो गया है अगर पुष्प वाटिका हरी-भरी हो जाए तब इसे मेरी कुशलता का संकेत समझ लेना।

 

 

 

इतना समझाकर देवीदास अपने मामा सुजीत के साथ काशी चला गया। विवाह के अन्य कार्य सम्पन्न करने के लिए जब सभी बाराती प्रातःकाल के समय मंडप में उपस्थित हुए तब प्रिया ने अपने पिता से कहा – यह मेरा पति नहीं है, मधुपर्क और कन्यादान के समय मैंने जो आभूषण दिए थे यदि उसे दिखा दे तो मैं इसे अपना पति स्वीकार कर लूंगी।

 

 

 

रात्रि के समय जिसके साथ हमारा विवाह सम्पन्न हुआ था वही मेरा पति है। कन्या के पिता ने वर को बुलाया और पूछा कन्या और तुम्हारे मध्य क्या बात हुई थी वह तुम्हे बताना पड़ेगा तभी कन्या तुम्हे स्वीकार कर सकती है अन्यथा नहीं। वह वर बोला – मुझे कुछ नहीं मालूम है इसके पश्चात लज्जित होकर वर और बारात दोनों वापस लौट गए।

 

 

 

कुछ समय के उपरांत काल से प्रेरित होकर एक सर्प देवीदास को डंसने के लिए आया। पर देवीदास के ऊपर कोई प्रभाव नहीं हुआ कारण कि देवीदास की माता प्रेमशीला ने बत्तीस पूर्णमासी का व्रत पूर्ण किया था फिर तो देवीदास के प्राण हरण के लिए स्वयं काल को आना पड़ा।

 

 

 

काल के प्रभाव से देवीदास मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। देवीदास के ऊपर व्रत का प्रभाव था अतः स्वयं महादेव और पार्वती जी वहां उपस्थित हो गए। माता पार्वती ने कहा – भगवन! देवीदास को प्राणदान दे दीजिए इसकी माता ने पुत्र की दीर्घायु के लिए बत्तीस पूर्णमासी का व्रत पूर्ण किया हुआ है।

 

 

 

महादेव ने देवीदास को प्राणदान दे दिया वह उठकर बैठ गया। प्रिया ने अपनी पुष्प वाटिका के सभी फूलो को सूखा हुआ देखा तो उसे लगा कि देवीदास का अंत हो गया। पर दूसरे दिन वही प्रातःकाल वही पुष्प वाटिका पुनः हरी-भरी हो गयी। प्रिया को ज्ञात हो गया कि देवीदास के ऊपर से प्राण का संकट टल गया है।

 

 

 

वह अपने पिता से अपने पति को ढूढ़ने के लिए कहने लगी। सोलह वर्ष व्यतीत हो जाने के पश्चात सुजतीत अपने भांजे देवीदास के साथ काशी से प्रस्थान करके वहां आया जहां उसका ब्याह प्रिया के साथ हुआ था। प्रिया के पिता अपने दामाद की खोज में जाने ही वाले थे।

 

 

 

उसी पल सुजीत अपने भांजे के साथ उपस्थित हो गया। गांव के लोग बहुत खुश हुए और बोले यही युवक जिसका प्रिया के साथ विवाह सम्पन्न हुआ था। प्रिया ने देवीदास को पहचान दिखाई तथा देवीदास ने पहचान लिया। सब लोग बोले यह तो वही युवक है जो संकेत करके गया था।

 

 

 

कुछ समय बीतने पर देवीदास अपने मामा और पत्नी के साथ अपने श्वसुर से बहुत सा धन उपहार प्राप्त करके अपने घर के लिए प्रस्थान किया। गांव में किसी को भी देवीदास के आने पर विश्वास नहीं हुआ लेकिन करीब से देखने पर सभी को विश्वास हो गया।

 

 

 

गांव के लोग सभाजीत और उसकी पत्नी प्रेमशीला से जाकर बता दिए कि उनका पुत्र अपनी पत्नी और मामा सुजीत के साथ वापस लौट आया है। सभाजीत और प्रेमशीला ने अपने पुत्र और वधू को देखकर पुलकित हो उठे तथा अन्य ब्राह्मणो का सत्कार करके उन्हें उपहार देकर सम्मानित किया।

 

 

 

भगवान कृष्ण माता यशोदा से बोले – इस प्रकार सभाजीत और प्रेमशीला दोनों बत्तीस पूर्णिमा के व्रत के प्रभाव से पुत्रवान हो गए। जो स्त्रियां इस व्रत को करती है उन्हें कभी वैधव्य का दुःख नहीं व्याप्त होता है तथा अखंड सौभाग्यवती और सुखी रहती है।

 

 

पूर्णिमा व्रत कथा इन हिंदी पीडीएफ

 

 

 

 

Purnima Vrat Katha in Hindi pdf

 

 

 

 

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