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Satyanarayan Katha Pdf 

 

 

 

 

 

 

देवर्षि नारद एक बार मृत्यु लोक में भ्रमण पर आये थे। उन्होंने मृत्युलोक के सभी प्राणियों को बहुत प्रकार से परेशान देखा उनका विराग मन बहुत व्यथित हो उठा। वह अपने मन में विचार करने लगे कि इस मृत्युलोक के प्राणियों के दुःख का निवारण कैसे किया जा सकता है?

 

 

 

 

उन्हें कुछ उपाय नहीं सूझ पड़ा। वह विचरण करते हुए बैकुंठ धाम पहुंच गए। उन्हें देखकर लक्ष्मीपति बहुत प्रसन्न हुए और देवर्षि नारद को उचित आसन देकर उनका सम्मान किया। देवर्षि नारद के मुखमंडल पर व्यग्रता देखकर लक्ष्मीपति नारायण ने पूछा।

 

 

 

 

हे मुनिश्रेष्ठ! आपका सदैव प्रसन्न रहने वाला यह मुख मंडल इतना व्यथित क्यों दिख रहा है? नारद जी बोले – भगवन! मैं मृत्युलोक से आ रहा हूँ। वहां पर सभी प्राणी अपने कर्म के दुखो से परेशान है। कृपा करके आप उन सभी के कष्ट का निवारण का उचित और सरल मार्ग बताने की कृपा करे।

 

 

 

 

नारद जी के प्रश्न सुनकर भगवान नारायण बोले – हे वत्स! तुमने जगत कल्याण की कामना से अत्यंत सुंदर प्रश्न किया है अतः तुम इसके लिए साधुवाद के पात्र हो। आज मैं तुम्हे ऐसा व्रत बताता हूँ जो महान पुण्यदायक है तथा स्वर्ग में भी दुर्लभ है। इस व्रत से महान पुण्य की प्राप्ति होती है।

 

 

 

 

यह व्रत करने वाले के सभी मोहपाश से मुक्त कर सांसारिक सुख प्रदान करता है और अंत में उसे भगवान के परम धाम की प्राप्ति होती है। सत्यनारायण की कथा और व्रत पूजन करने में सभी मानव का समान अधिकार है। यही स्पष्ट करने के लिए इस कथा में निर्धन ब्राह्मण, निर्धन लकड़हारा, साधु वैश्य, उसकी पत्नी लीलावती तथा पुत्री कलावती, राजा तुंगध्वज तथा गोपगणों का उल्लेख किया गया।

 

 

 

 

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिसने भी सत्य के प्रति श्रद्धा भाव से विश्वास किया उसके सभी कार्यो की अवश्य ही सिद्धि हुई। कोई भी कार्य करने में श्रद्धा और विश्वास ही पहला मूल मंत्र है। काशीपुर के नगर में एक निर्धन ब्राह्मण को भिक्षाटन करते देखकर भगवान विष्णु स्वयं एक वृद्ध ब्राह्मण के स्वरुप में उस निर्धन ब्राह्मण के पास जाकर सत्यनारायण भगवान की व्रत कथा वर्णन करते हुए कहा।

 

 

 

 

सत्यनरायण भगवान की व्रत कथा करने से इच्छित वस्तुओ की पूर्ति होती है। इस व्रत में उपवास तथा शुचिता का भी बहुत महत्व है। विश्वास और शुचिता के साथ ही सत्यनारायण भगवान की मंगलमयी कथा का श्रवण करना चाहिए। सायंकाल में इस कथा और सत्यनारायण भगवान के पूजन का बहुत अधिक महत्व होता है।

 

 

 

 

साधु वैश्य ने राजा उल्का मुख से इस कथा का प्रसंग विधान के साथ सुना किन्तु उसमे श्रद्धा नहीं थी और उसका विश्वास भी अधूरा था। साधु वैश्य ने कहा था कि संतान प्राप्त होने पर भगवान सत्यनारायण का पूजन व्रत करूँगा। समयोपरांत उसे एक सुंदर कन्या की प्राप्ति हुई।

 

 

 

 

उसकी धर्मपरायणा पत्नी ने जब उसे सत्यनारायण व्रत की याद दिलाई तो साधु वैश्य बोला – कन्या के विवाह के समय यह व्रत करेंगे। समय बीतता गया साधु वैश्य की कन्या का विवाह भी सम्पन्न हो गया किन्तु उसने व्रत का पालन नहीं किया। वह अपने दामाद को साथ लेकर व्यापार करने चला गया।

 

 

 

 

उसे राजा चंद केतु के राज्य में चोरी का आरोप लगा तथा उन दोनों को चंद्र केतु राजा ने दंड स्वरुप कारागार में डाल दिया। उसके पश्चात साधु वैश्य के घर में चोरी हो गयी। उसकी पत्नी लीलावती तथा पुत्री कलावती दोनों भिक्षा मांगने के लिए विवश हो गयी।

 

 

 

 

कलावती ने किसी विप्र के घर एक दिन सत्यनारायण का पूजन और व्रत देखा तथा घर आकर अपनी माता से बताया। उसकी माता ने अगले दिन सत्यनारायण का श्रद्धा भाव से पूजन कर भगवान से अपने पति और दामाद के शीघ्र वापस आने का वरदान मांगा।

 

 

 

 

भगवान सत्यनारायण ने प्रसन्न होकर स्वप्न में राजा को आदेश दिया कि उन दोनों बंदीजनों को छोड़ दो। राजा ने साधु वैश्य और उसके दामाद को उनकी सम्पत्ति के साथ और भी प्रचुर मात्रा में धन सम्पत्ति देकर विदा कर दिया। साधु वैश्य अपने दामाद के साथ सकुशल घर पहुंचकर जीवन पर्यन्त पूर्णिमा और संक्रांति पर भगवान सत्यनारायण के व्रत पूजन का आयोजन करता रहा और अंत समय में परम गति का फल प्राप्त किया।

 

 

 

 

एक बार राजा तुंगध्वज जंगल में गया हुआ था। वहां पर कई गोप समूह में भगवान सत्यनारायण की पूजा कर रहे थे। किन्तु राजा तुंगध्वज अपनी प्रभुता के मद में चूर था। वह पूजा स्थल पर नहीं गया। दूर से भी भगवान सत्यनारायण को प्रणाम नहीं किया तथा गोपगणों के द्वारा दिया गया प्रसाद भी ग्रहण नहीं किया।

 

 

 

 

परिणाम स्वरुप राजा का सारा राज्य व बंधु बांधव सब नष्ट हो गए तब राजा तुंगध्वज को अकस्मात ही आभास हुआ कि यह सब भगवान सत्यनारायण के निरादर का फल है। वह तुरंत जंगल में गया तथा भगवान के निरादर का प्रायश्चित करने के लिए सभी गोपगणों को बुलाकर काफी समय तक भगवान सत्यनारायण की पूजा किया।

 

 

 

 

फिर उन गोपगणों से ही प्रसाद ग्रहण करके घर वापस आया और देखा उसकी विपत्ति टल गयी अर्थात सब कुछ पहले की भांति व्यवस्थित और सामान्य हो गया था। राजा प्रसन्नता से भर उठा। वह सत्यनारायण की पूजा तथा व्रत करते हुए अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया।

 

 

 

 

सत्य की पूजा करना ही सत्यनारायण की पूजा है क्योंकि नारायण एक मात्र शाश्वत सत्य है बाकी सब कुछ मिथ्या है। माया के वशीभूत होने के कारण ही इस संसार में सभी लोग दुःख उठा रहे है। माया रूपी अज्ञान को नष्ट करके सनातन सत्य को स्वीकार करके ही प्रभु की भक्ति करते हुए ही मनुष्य का जीवन सुखमय हो सकता है।

 

 

 

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