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Shrimad Bhagwat Mahapuran in Hindi Pdf
जीवन का उद्देश्य (विष्णु) – श्री कृष्ण कहते है – योगाभ्यास करने वाले को चाहिए कि वह अपने शरीर, गर्दन तथा सिर को सीधा रखे और नाक के अगले सिरे पर दृष्टि लगाए। इस प्रकार वह अविचलित तथा दमित मन से भय रहित विषयी जीवन पूर्णतया मुक्त होकर अपने हृदय में मेरा चिंतन करे और मुझे ही अपना चरम लक्ष्य बनाए।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – जीवन का उद्देश्य कृष्ण को जानना है जो प्रत्येक जीव के हृदय में चतुर्भुज रूप में स्थित है। योगाभ्यास का प्रयोजन विष्णु के इसी इसी अन्तर्यामी रूप की खोज करने तथा देखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। कृष्ण ही जीवन के परम लक्ष्य है और प्रत्येक हृदय में स्थित विष्णु मूर्ति ही योगाभ्यास का लक्ष्य है।
अन्तर्यामी विष्णु मूर्ति प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में निवास करने वाले कृष्ण का स्वांस रूप है जो इस विष्णु मूर्ति की अनुभूति करने के अतिरिक्त किसी अन्य कपट योग में लगा रहता है वह निःसंदेह अपने समय का अपव्यय करता है। हृदय के भीतर इस विष्णु मूर्ति की अनुभूति प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य व्रत अनिवार्य है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह घर छोड़कर किसी एकांत स्थान में बताई गई विधि से आसीन होकर रहे।
उसे मन को संयमित करने के लिए अभ्यास करना होता है। नित्यप्रति घर में या अन्यत्र मैथुन-भोग करते हुए और तथा कथित योग की कक्षा में जाने मात्र से कोई योगी नहीं हो जाता है। सभी प्रकार की इन्द्रिय तृप्ति से बचना होता है जिसमे मैथुन-जीवन मुख्य है।
महान ऋषि याज्ञवल्क्य ने ब्रह्मचर्य के नियमो को बताया है –“सभी काल में सभी अवस्था में सभी स्थान में मन, वचन और कर्म से (मनसा वाचा कर्मणा) मैथुन भोग से पूर्णतया दूर रहने में सहायता करना ही ब्रह्मचर्य व्रत का लक्ष्य है।”
पांच वर्ष की आयु में बच्चो को गुरुकुल भेजा जाता है जहां गुरु उन्हें ब्रह्मचारी बनने के दृढ नियमो की शिक्षा प्रदान करते है। मैथुन में प्रवृत रहकर योगाभ्यास नहीं किया जा सकता है। इसलिए जब बचपन में मैथुन का कोई ज्ञान नहीं रहता है तभी से ब्रह्मचर्य की शिक्षा प्रदान की जाती है। ऐसे अभ्यास के बिना किसी भी योग में उन्नति नहीं की जा सकती है चाहे वह ध्यान हो या ज्ञान की या भक्ति की।
संयमशील गृहस्थ ब्रह्मचारी को भक्ति सम्प्रदाय में स्वीकार किया जा सकता है जो व्यक्ति विवाहित जीवन के विधि विधानो का पालन करता है और अपनी ही पत्नी से मैथुन संबंध रखता है वह भी ब्रह्मचारी कहलाता है। किन्तु भक्ति सम्प्रदाय ज्ञान तथा ध्यान सम्प्रदाय वाले ऐसे गृहस्थ-ब्रह्मचारी को प्रवेश नहीं देते है। उनके लिए तो पूर्ण ब्रह्मचर्य अनिवार्य होता है।
भगवद्गीता में (2. 59) कहा गया है – जहां अन्य लोगो को विषय-भोग से दूर रहने के लिए बाध्य किया जाता है भगवद्भक्त, भगवद रसास्वादन के कारण इन्द्रिय तृप्ति से स्वतः ही विरक्त हो जाता है। भक्ति सम्प्रदाय में गृहस्थ ब्रह्मचारी को संयमित मैथुन की अनुमति रहती है क्योंकि भक्ति सम्प्रदाय इतना शक्तिशाली है कि भगवान की सेवा में लगे रहने से वह स्वतः ही मैथुन का आकर्षण त्याग देता है। भक्त को छोड़कर अन्य किसी को इस अनुपम रस का ज्ञान नहीं होता है।
भागवत का (11. 2. 37) कथन है – कृष्ण भावना भावित व्यक्ति ही योग का पूर्ण अभ्यास कर सकता है। विगत-भीः पूर्ण कृष्ण भावना भावित हुए बिना मनुष्य निर्भय नहीं हो सकता है। बद्ध जीव अपनी विकृत स्मृति अथवा कृष्ण के साथ अपने शाश्वत को भूलने के कारण ही भयभीत रहता है।
चूंकि योगाभ्यास का चरम लक्ष्य अंतःकरण में भगवान का दर्शन करना है। अतः कृष्ण भावना भावित व्यक्ति पहले ही समस्त योगियों में श्रेष्ठ होता है। यहां पर वर्णित योग विधि के नियम तथा कथित लोकप्रिय योग समितियों से सर्वथा भिन्न है।
श्रीमद भागवत महापुराण Pdf Download

पुस्तक का नाम | Shrimad Bhagwat Mahapuran in Hindi Pdf |
पुस्तक के लेखक | ऋषि व्यासदेव |
भाषा | हिंदी |
साइज | 63.1 Mb |
पृष्ठ | 977 |
श्रेणी | Dharmik Book Pdf |

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