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जिसपर यह सृष्टि संचालन का महान भार रखकर हम दोनों केवल काशी में रहकर इच्छानुसार विचरे और निर्वाण धारण करे। वही पुरुष हमारे अनुग्रह से हमेशा सबकी सृष्टि करे पालन करे और वही अंत में सबका संहार भी करे। यह चित्त एक समुद्र के समान है।

 

 

 

 

इसमें चिंता की उत्ताल तरंगे उठ-उठकर इसे चंचल बनाये रहती है। इसमें सत्वगुणरूपी रत्न तमोगुणी ग्राह और रजोगुणरूपी मूंगे भरे हुए है। इस विशाल चित्त समुद्र को संकुचित करके हम दोनों उस पुरुष के प्रसाद से आनंद-कानन में सुख पूर्वक निवास करे।

 

 

 

 

यह आनंदवन वह स्थान है जहां हमारी मनोवृत्ति सब ओर से सिमिटकर इसी में लगी हुई है तथा जिसके बाहर का जगत चिंता से आतुर प्रतीत होता है। ऐसा निश्चय करके शक्तिसहित सर्वव्यापी परमेश्वर शिव ने अपने वामभाग के दसवे अंगपर अमृत मल दिया।

 

 

 

 

फिर तो वहां से एक पुरुष प्रकट हुआ जो तीनो लोको में सबसे अधिक सुंदर था। वह शांत था। उसमे सत्वगुण की अधिकता थी तथा वह गंभीरता का अथाह सागर था। मुने! क्षमा नामक गुण से युक्त उस पुरुष के लिए ढूंढने पर भी कोई उपमा नहीं मिलती थी।

 

 

 

 

उसकी कांति इंद्रनील मणि के समान श्याम थी। उसके अंग-अंग से दिव्य शोभा छिटक रही थी और नेत्र प्रफुल्ल कमल के समान शोभा पा रहे थे। श्रीअंगो पर सुवर्ण की सी कांतिवाले दो सुंदर रेशमी पीतांबर शोभा दे रहे थे। किसी से भी पराजित न होने वाला वह वीर पुरुष अपने प्रचंड भुजदंडो से सुशोभित हो रहा था।

 

 

 

 

तदनन्तर उस पुरुष ने परमेश्वर शिव को प्रणाम करके कहा – स्वामिन! मेरा नाम निश्चित कीजिए और काम बताइये। उस पुरुष की यह बात सुनकर महेश्वर भगवान शंकर हँसते हुए मेघ के समान गंभीर वाणी में उससे बोले – वत्स! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम विष्णु नाम विख्यात हुआ।

 

 

 

 

इसके सिवा और भी बहुत से नाम होंगे जो भक्तो को सुख देने वाले होंगे। तुम सुस्थिर उत्तम तप करो क्योंकि वही समस्त कार्यो का साधन है। ऐसा कहकर भगवान शिव ने श्वास मार्ग से श्री विष्णु को वेदो का ज्ञान प्रदान किया। तदनन्तर अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले श्रीहरि भगवान शिव को प्रणाम करके बड़ी भारी तपस्या करने लगे और शक्तिसहित परमेश्वर शिव भी पार्षदगणों के साथ वहां से अदृश्य हो गए।

 

 

 

 

भगवान विष्णु ने सुदीर्घ काल तक बड़ी कठोर तपस्या की। तपस्या के परिश्रम से युक्त भगवान विष्णु के अंगो से नाना प्रकार की जल धाराएं निकलने लगी। यह सब भगवान शिव की माया से ही संभव हुआ। महामुने! उस जल से सारा सूना आकाश व्याप्त हो गया।

 

 

 

 

वह ब्रह्मरूप जल अपने स्पर्श मात्र से सब पापो का नाश करने वाला सिद्ध हुआ। उस समय थके हुए परम पुरुष विष्णु ने स्वयं उस जल में शमन किया। वे दीर्घकाल तक बड़ी प्रसन्नता के साथ उसमें रहे। जल में शयन करने के कारण ही उनका नारायण यह श्रुतिसम्मत नाम प्रसिद्ध हुआ।

 

 

 

 

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